2026 परसीमन संवेदन शील मुद्दा उत्तर भारत और दक्षिण भारत राज्यों के बीच संतुलन बनाना एक चुनौती |

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में संसद का प्रतिनिधित्व 1971 की जनगणना पर ही आधारित है, जिसकी समय सीमा 2026 में समाप्त हो रही है|
संविधान के अनुच्छेद 81 ,82 और 170 (3 ) में व्यवस्था की गई है की समय समय पर सीटों का नए सिरे से परिसीमन किया जाये जिसमें जनसँख्या परिवर्तन के आधार पर प्रतिनिधित्व समायोजित किया जा सके | संविधान में यह व्यवस्था की गयी है क़ि प्रत्येक सांसद बराबर लोगो का प्रतिनिधित्व करे |
उत्तर भारत के राज्यों उत्तरप्रदेश ,मध्यप्रदेश,बिहार राजिस्थान में ठोस कदम न उठाने के कारण बेतहासा जनसँख्या वृद्धि हुई वही दक्षिण के तमिलनाडु ,आँध्रप्रदेश, केरल जैसे राज्यों में जनसँख्या वृद्धि को रोकने के लिए, स्वस्थ्य ,शिक्षा आदि पर सरकारों द्वारा सफल काम किया गया |
मुजूदा हाल में उत्तरप्रदेश की जनसंख्या तमिलनाडु से लगभग दुगुनी हो गई |1971 में तमिलनाडु और उत्तरप्रदेश की जनसंसख्या लगभग बराबर हुआ करती थी|इसी तरह और भी उत्तर भारत के राज्यों में भी जनसँख्या वृद्धि हुई |
जनसँख्या वृद्धि की असमानता ही 2026 में होने वाले परसीमन और उसी आधार पर संसद में प्रतिनिधिनत्व के बढ़ने और घटने को लेकर दक्षिण भारत के राज्यों में नुकसान के डर का माहौल पैदा कर रही है |इसी कारण दक्षिण राज्यों में विरोध का सुर उठ रहा है उन्हें लग रहा है की अच्छे प्रयास का उन्हें दंड मिल है | इस विरोध का नेतृत्व खुद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन कर रहे |
यदि 2026 में जनसंख्या पैमाना बना तो उत्तर भारत के राज्यों में संसद की सीटों की संख्या दक्षिण के राज्यों की तुलना मैं अधिक बढ़ेगी जो की राजनैतिक हितों में दक्षिण राज्यों के साथ अन्याय जैसा लगेगा |
हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने दक्षिण राज्यों को परसीमन में उनके हितों की रक्षा करने का आश्वासन दिया है |
कई मायनो में 2026 परसीमन बहुत चुनौती भरा मुद्दा है जिसको सुलझाने के लिए समग्र दृष्टिकोण चाहिए |